रविवार, 8 अगस्त 2010

सागर किनारे

सच्चिदानंद
सागर किनारे
चीटियाँ बनाती हैं अपना घरौंदा
सागर में उठती-गिरती रहती हैं लहरें
आता है तूफ़ान/ बिखर जाते हैं घरौंदे
बिखर जाता है चीटियों का झुण्ड
बिखरी हुई चीटियाँ/ फिर से बनाती हैं अपना झुण्ड
फिर से बनाती हैं अपना घरौंदा
उनके जीवन में होता है सिर्फ निर्माण-सिर्फ निर्माण!
क्योंकि एक निर्माण के पूरा होते ही
ख़त्म हो जाता उस निर्माण का नामोनिशान
क्योंकि सागर में उठती -गिरती रहती हैं लहरें
उठता-गिरता रहता है ज्वार-भाटा
आता ही रहता है तूफ़ान
उजर्ता -बसता रहता है घरौंदा
घरौंदे के निर्माण में लगा रहता है आशिक मन
आशिक मन सागर किनारे रोता है बार-बार
सागर को यह पता नहीं कि उसके खारा जल में
उन आंसू का भी योग है.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें