शनिवार, 28 अगस्त 2010

मंगलेश डबराल की कविता

 इन ढलानों पर
इन ढलानों पर वसंत आएगा
हमारी स्मृति में
ठंड से मरी हुई इच्छाओं को
फिर से जीवित करता
धीमे-धीमे धुन्धुवाता खाली कोटरों में
घाटी की घास फैलती रहेगी रात को
ढलानों से मुसाफिर की तरह
गुजरता रहेगा अंधकार
चारों ओर पत्थरों में दबा हुआ मुख
फिर से उभरेगा झांकेगा कभी
किसी दरार से अचानक
पिघल जायेगा जैसे बीते साल की बर्फ
शिखरों से टूटते आयेंगे फूल
अंतहीन आलिंगनों के बीच एक आवाज
छटपटाती रहेगी
चिड़िया की तरह लहूलुहान 

श्रोत : फेसबुक

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