रविवार, 10 अक्तूबर 2010

बाबा नागार्जुन की कविता

१९५२ में लिखी गयी बाबा की कविता अकाल और उसके बाद की प्रासंगिकता अभी ख़त्म नहीं हुई है. भूख से आज भी मौतें होती है. फर्क सिर्फ इतना है कि गरीब व अमीर के बीच की खाई ज्यादा गहरी हो गयी है. ग्लोबलाय लेजेशन के इस युग में एक तबका काफी पीछे छूट गया है. यह हमारे देश की विडंबना ही है  कि यह कविता आज भी प्रासंगिक है. भूख से हुई मौतें अब अख़बारों की सुर्खियाँ नहीं बनती.
अकाल और उसके बाद
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास

कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त ।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद

चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद ।

रचनाकाल : 1952

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें