शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

जो बात यहां है वो कहीं भी नहीं...

काठमांडो...यह नाम सुनते ही मेरे मन में उत्साह भर आता है। इसकी रोमांचकारी यात्रा मुझे शुरू से ही आकर्षित करती रही है। आसमान को छूते पहाड़ और दुर्गम घाटियों के बीच से गुजरना हर बार एक नया रोमांच भर देता है। अगर आप ड्राइवर की पीछे वाली सीट पर बैठे हों
, तो रोमांच और दुगुना हो जाता है। कभी-कभी लगगा है कि बस अब पहाड़ से टकरा जाएगी। ठंडी हवाओं के झोंके से आंख लग गई। अचानक ड्राइवर ने ब्रेक लिया और आप हड़बड़ाकर उठे, देखा- सामने हजारों फीट गहरी खाई... लेकिन बस फटाक से मुड़ गई। बलखाती पहाड़ी सडक़ पर अब यह ऊपर की ओर जा रही है। काठमांडो अब तक कई बार जा चुका हूं लेकिन हर बार यह यात्रा नया रोमांच पैदा करती है। मई २०१३ की यात्रा भी ऐसी ही थी। 
बस जैसे ही काठमांडो के ललितपुर पहुंची, ठंडी ताजी हवाओं ने हमारा स्वागत किया। ललितपुर पहाड़ की एक सबसे ऊंची चोटी पर है। नीचे लंबी घुमावदार सडक़ और बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े तैर रहे थे। बादलों के ऐसे ही टुकड़े बस की खिडक़ी के पास तैरने लगे थे। हाथ निकालकर उन्हें छुआ तो हाथ गीला हो गया। तकरीबन दस घंटे के सफर की थकान मानों पल भर में गायब हो गई और मन में एक नई ऊर्जा का संचार हो गया। 
हमारे यहां मैथिली में एक कहावत है। सुखटीक बनिज आ पशुपतिक दर्शन। अर्थात एक पंथ दो काम। काठमांडो जाइए तो पशुपतिनाथ महादेव का दर्शन कीजिए और सुखटी (सूखी)मछली का आनंद उठाइए। सो अगले दिन शुक्रवार को हमें पशुपतिनाथ का दर्शन करना था।
शुक्रवार को दिन भर खूब घूमा। पशुपतिनाथ मंदिर, मृग स्थली, दक्षिणेश्वर काली, सिंह दरबार .. दिन भर भटकता रहा। थक गया पर मन नहीं भरा। बचपन से कई बार यहां आता रहा हूं। थकता रहा हूं। थकने के बाद भी एक नया उत्साह, एक नई ऊर्जा का संचार हमारे मन में होता है। आसमान की बुलंदियां छूते पहाड़ और इनके बीच से निकलती बागमती नदी दोनों को निहारने में बड़ा बजा आता है। शायद पहाड़ों की अदम्य जीजीविषा के कारण हीआज तक इन्हें कोई झुका नहीं पाया है। और इनके बीच से निकलती बागमती की जिद के कारण ही इन्हें आज तक कोई रोक नहीं पाया है। काफी अद्भुत लगता है यह दृश्य।
-सच्चिदानंद

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